Friday, March 8, 2013

मनाओ…”महिला दिवस पर”

मना सकते हो तो उस रूठी हुई रूह को मनाओ 
और वो एक ही क्या, कितनी और जो रूठ चली गयीं 
चलीं क्या गयीं...बे आबरू और रुसवा की गयीं 
जीते जी रूठना-मनाना तो फिर भी खूबसूरत था 
पर जिस तरह से काले दिन मने वो बदसूरत था 
हाँ, उम्मीद पर ही आदम की ये हयात कायम है 
तो चलो आज के दिन कर लेते हैं एक और उम्मीद 
सिर्फ जागना ही काफी नहीं टूटे होश की बेहोश नींद 
उन बेहोशों का तो कोई भी यकीन नहीं न आज न कल 
ये सोच विचार की बातें हैं हमारे लिए जो रखते अक्ल
ज़ाया ही कर देंगे इस दिन को भी हम गुज़रते ही
चली जो गयी भैंस अक्ल का सूखा चारा चरते ही
चलो देखो जितना हो सके उतनों तक ये दिन पहुँचाओ
मना सकते हो तो उस रूठी हुई रूह को मनाओ!!!

"असंख्य निर्भायाओं" के आह्वान के साथ नमन, हर उस महिला का जो पुरुषों को उनके अस्तित्व का मौक़ा देती है इंसानों की इस दुनिया में.