Monday, November 10, 2008

ज़बान चलती है

ज़बान कोई भी हो...कुछ ऐसे लफ्ज़ ज़रूर होते हैं जो हर हाल में चाहते हैं की इंसानी जज़्बात वैसे ही बने रहें जैसे बिना किसी पहचान के कोई जी रहा हो। लड़ाई या मतभेद की गोली भाषा के कंधे पर रख के अपनी मनमानी कर के कैसे लग सकता है कि भाषा चैन की नींद सोयेगी। निर्दोषों की कोई ज़बान कोई भाषाई पहचान नहीं होती। पर आटे के साथ घुन पिसने की पुरानी रवायत जाने कब अपने सही प्रयोग में आएगी। कुल मिला के भाषागत सार यही है कि भाषा के नाम पे हिंसा हो, बेक़सूरों कि बलि चढ़े यह उचित कैसे हो सकता है...

रही बात स्थानीय जज़्बात की और गैर स्थानीय नागरिकों की, उन्हें उनकी सम्बंधित सरकारों से एक निर्देश मिलना चाहिए की किसी भी तरह का अनैतिक दोहन न करें। सादे शब्दों में यह समझ जानो के दिमाग में बैठा दी जायें की मुंबई महानगर उत्थान की संभावनायें देता है, पतन की ओर धकेलने का त्रणमात्र भी अधिकार नहीं

राजनीति अवसर नहीं देगी की आम zindagi इन अंधड़ से अछूती रहे,
उसका तो चूल्हा इंसानियत के बुझते अंगार से ही जलने की फिराक में रहता है।

सवाल मराठी या हिन्दी का नहीं है, सवाल भाषा की तानाशाही से नहीं सुलझेंगे, हाँ दिल की ज़बान अगर समझ सके तो बहुत गनीमत होगी.

Sunday, July 13, 2008

हवा

हमारे इर्द-गिर्द फैले हुए हैं हजारों सवाल, जो किसी न किसी तरह से करते हैं हमें प्रभावित। पर हम उन्हें ज़माने की बदलती हवा समझ उसके साथ बहने तो लगते हैं। रह जाती है मगर एक टीस कि चाह के भी वो क्यों नहीं कर पाते, जो मन कहता है कि ठीक है...