Tuesday, November 16, 2021

"आशा के आसमान का टिमटिमाता तारा"


आशा से आसमान टिका है, यही पॉज़िटिविटी लिये, छोटे शहर के जवाँ लड़के, महानगर पहुँचते हैं। कुछ, यहाँ-वहाँ दिन गुज़ारते हैं, कुछ तो न जाने कहाँ-कहाँ...पर कुछ हम जैसे मध्यमवर्गीय, जिन पर क़िस्मत भी मध्यम-मार्ग की तर्ज़ पर तोल-मोल के मेहरबान होती है। महीने के बीचों बीच, जब क़िस्मत, कर्म, धर्म की शाला के बाहर ला खड़ा करती है तो किसी तरह हालात से लोकल की पटरी बिठाते हुये, क़िस्मत के नए खेल खेलते हुये, झमाझम बरसती बारिश में खुली छत वाले मकान की तरह हम, एक 'आस' के पास पहुँचते हैं। जिसकी पनाह एक ऐसी आशा से भरी थी, जिसे लिये हम चले तो थे अपने छोटे शहर से, लेकिन जो चमकी अब जा के थी सन् दो हज़ार तीन की एक जुलाई को !
अजनबी शहर में, अजनबी एहसासों के बीच, एक अन्जाने से अपनेपन के साथ, हम आशा आँटी के पेइंग गैस्ट बन गये।

हमारी ये आशा, जिन्हें हम आँटी कहते थे, नैन्सी वसाहत (कॉम्प्लेक्स) के बी-ब्लॉक के चौथे माले की जगत भाभी तो थीं ही, बाक़ी जगत भी इनको भाभी ही बुलाता था, चाहे इनकी नातिन हो या इनकी अपनी बेटी। सबके लिये वो भाभी ही थीं, अरे उनका नाम ही भाभी पड़ गया था।

आज के कोरोना काल में जहाँ सगे रिश्ते भी मुँह फेरने को मजबूर हैं, ऐसे में आँटी जैसी भलमनसाहत बरबस ही याद आ जाती है। उम्रदराज़ हो कर भी उन सा एक्टिव कोई न था। कच्छी-गुजराती हो कर भी बम्बईया हिन्दी में निपुण थीं। सुबह के खाखरे, चाय के पहले गुजराती अख़बार बिना पढ़े उनका सवेरा पूरा नहीं होता था। यही वजह थी कि दीन-दुनिया की सारी ख़बर उनको रहती थी। यहाँ तक कि बॉलीवुड के बारे में उनका जनरल नॉलेज अप-टू-डेट रहता था।

घर-मालिक से जो निर्देश आते हैं वो तो आते ही थे, मगर ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब घर में कुछ बने और परवाह का निवाला हम तक न पहुँचे। हम भले लिहाज़ में कतरायें, मगर आँटी का ममतामयी दिल, औपचारिकताओं को पिघला सा देता था। घुलने-मिलने का आलम ये हुआ कि हम भी दिन में दो टाइम, भोजन के बाद नियमित छास पीने के आदी हो गये।

आँटी के सरल स्वभाव ने चौथे फ्लोर के बाक़ी तीनों घरों के बाशिंदों का भी मन जीता हुआ था। बम्बई में यह आमतौर पर कम देखा जाता है। पर आँटी सामने वाले पड़ौसी के बच्चे के लिये अगर दादी थीं तो बगल के एक घर में उनको बड़े बुज़ुर्ग की तरह आदर-सत्कार मिलता था और दूसरे घर में उन्हें हमारी तरह आँटी का दर्जा दिया जाता था।

हमारे पेइंग गैस्ट स्टेटस के कुछ ही समय बाद, एक बार जब उनको अपने कुटुंब में शादी-ब्याह के कार्यक्रम में जाना पड़ा, तो उन्हें थोड़ी चिन्ता हुई कि कैसे बाहर वालों के हवाले पूरी गृहस्थी छोड़ कर जायें। लेकिन जो थोड़ी बहुत साख हमारी बनी, उसके आसरे वो आख़िर चली गईं। 5-6 दिन बाद जब लौटीं, तो उनने पाया कि सब कुछ जस का तस है, घर चकाचक साफ़-सुथरा है, यहाँ तक कि, किचन की सिंक के सारे बर्तन तरतीब से सजे, धजे, जमे हैं। उनकी आँखें चमक उठीं, आख़िर उनकी आशा के अनुरूप हम कुछ कुछ खरे उतरे।


आँटी का सेंस ऑफ ह्यूमर भी जब-तब जागता रहता था। कोई गुदगुदाती बात कह के किसी अल्हड़ कमसिन लड़की की तरह दांतों तले जीभ दबा के दबी सी हँसी भी आ जाती थी। भारद्वाज अंकल  को याद करते हुए बताती थीं कि, "आपका अंकल कहता था, रे तारा (आँटी का मायके का नाम) तेरा नाम आशा रख देते हैं, नहीं तो लोग तेरे को शॉर्ट में टी बी जोशी बुलायेंगे। मैं बोली, नहीं रे बाबा, मेरे को टीबी नहीं बनना, मैं ए बी जोशी ही ठीक हूँ।" हम उनकी इस बात पर खिलखिला उठते।

ख़ुशनसीब हैं वो जिनको
आबोदाना मिला है
इस शहर में सर छुपाने का,
ठिकाना मिला है

मुम्बई महानगर में इस तरह का फ़लसफ़ा, क़िस्मत, मेहनत और सिर पर बुज़ुर्गों के आशीर्वाद से ही बन पाता है। जैसे हमारे सिर पर आँटी का था। यह आशीर्वाद सिर्फ़ पेइंग गैस्ट होने की वजह से ही नहीं था, बल्कि वक़्त ने जब आबोदाने की बदहाली दिखाई और हम नॉन-पेइंग हो गए, तब भी, आँटी का हाथ हमारे सिर पर रहा और हम गैस्ट की बजाय अब तो जैसे उनका ही एक परिवार थे।
जबकि, हमारे होने से घर में होने वाले ख़र्चों की भरपाई का हम भी एक अहम ज़रिया थे। लेकिन, आँटी ने बिना उफ़ किये, न सिर्फ़ छत बरक़रार रखी बल्कि, अपनी रसोई से हमें कभी भूखा न रहने दिया। वे हमेशा आशावान रहीं और कहतीं कि मुझे पूरा विश्वास है, जैसे ही आप के पास पैसा होगा तो आप बिना दिए भागेंगे नहीं।

उनका यह उधार, यह प्यार हमें 5 माह तक जिलाता रहा। हालात फेवरेबल नहीं हो पा रहे थे। मुम्बई से लौटने का तय कर लिया, क्योंकि नाहक भी भार बनना कोई अच्छी बात नहीं थी। आँटी ने वैसे ही बहुत आसरा दे रखा था। 1 जुलाई को आया था उनकी छत के तले, साल भर बाद 31 जुलाई की रात, वहाँ से चल पड़ने की रात थी।

उसके तीन दिन पहले एक संयोग यूँ हुआ कि छोटा सा एक काम मिला, किया, 4-5 माह बाद 800 ₹ की आमदनी इसी शहर ने दी, मानो जाते जाते, विदाई का नेंग दे रहा हो। ख़ैर, लक्ष्मी मेहनत की थी, माथे लगाई। 500 ₹ आँटी के हाथ रखे, कहा कि यह इस बेटे की ओर से माँ को छोटी सी कमाई, क्योंकि, पेइंग गैस्ट की जो बड़ी रकम है वह तो मैं अपने गृहनगर जा के ही भेज सकूँगा। आँटी ने हिचकते हुए वो रुपये लिये और बोलीं, "मुझे आप पर पूरा भरोसा है, मुझे ख़राब लग रहा कि आप जा रहे, लेकिन आपका सोचना भी सही है। बिना कमाई, ख़र्चा क्यों बढ़ाना?
लेकिन आप जब भी मुम्बई आयें, मेरे घर का दरवाज़ा आपके लिये हरदम खुला रहेगा। वहाँ से याद देना मेरे को, आँटी को भूलना नहीं।"
हमने भारी दिल से पैर छुए,  उनने "आशीर्वाद" कहा और हम लौट आये अपने शहर। पहुँच कर आँटी की सारी बक़ाया धनराशि भेजी, जो कुछ हज़ारों में थी। पर ज़ाहिर है, वह ऋण तो कभी नहीं चुका पाये जो उनकी भलमनसाहत, प्यार, आसरा, आशीर्वाद ने भर-भर के हमें दिया।

कुछ माह बाद जब मुम्बई लौटने के संयोग बने, दिल के दरवाज़े बेशक़ खुले थे, आँटी ख़ुश थीं। पर पेइंग गैस्टों से घर भरा पड़ा था। हमने अपना बसेरा कहीं और जमा लिया और मुम्बई के अलग अलग ठिकानों में रहे, उनके आशीर्वाद से  इस शहर में दूसरी पारी लम्बी जम गई, उतार-चढ़ाव आते रहे, मगर आशा का आसमान टिका रहा।

हम कहीं भी रहे, आँटी से जब-तब जा कर मिलते रहे। जब जाते, आँटी कुछ न कुछ ज़रूर खिलातीं और अपने ममत्व से हर बार निहाल करतीं। शादी-ब्याह हुआ तो आशीर्वाद मिला, ख़ुद का घर ख़रीदा, जहाँ एक बार उनके चरण भी पड़े, इतनी ख़ुशी हुई हमें और उन्हें भी जिसका हिसाब नहीं। जब बच्ची हुई तो उसे भी फ़ोन पर उनका आशीर्वाद मिला, हालांकि आमने-सामने काश मिल पाती। पर रिहाइश के बड़े फ़ासलों और ज़िन्दगी की भागदौड़ ने आने-जाने के मौके थोड़ा कम कर दिये।

इधर कोरोना काल के 2 मुश्किल सालों ने तो सबके ही लिये खाई सी बना दी, जिस पर रेल का बिछा पुल भी बेबस हो गया था। हम साल भर से फिर अपने गृहनगर में थमे हुए थे। सब थमा हुआ था, बस वक़्त ही था जो न रुकता है, न रुका था। हमें भी अब बड़ा वक़्त हो चुका था आँटी से मिले, यहाँ तक कि बात और सम्पर्क हुए। मगर इधर हम याद करते रहे, उधर वो भी ज़रूर ही करती होंगी। हमारे दरम्यान जुड़े जो लोग थे, उनसे राज़ी-ख़ुशी की ख़बर तो लग जाया करती थी। कई दफ़े सेहत बिगड़ने की भी ख़बर मिलती और दिल फ़िक्रमन्द हो जाता, मगर ज़्यादा कुछ न कर पाता।

उम्र भी एक अजब सी चीज़ है, जिस्म के मक़ान में पेइंग गैस्ट की तरह रखती है, पर ज़िन्दगी का किराया वसूल लेती है, वो भी नक़द, बिना किसी उधार के।
आँटी की तरह सब कहाँ होते हैं, न वक़्त न लोग, कि बेशर्त छत तले, पालें-पोसें।

इसी साल, पिछले माह, अक्टूबर की 18वीं को ख़बर आई कि 2-3 माह से आशा के आसमान पर मंडराते काले बादल कुछ यूँ घुमड़े कि दिन पर एक ख़त्म न होने वाली रात की चादर पड़ गई। जो आशा थी, वो अब तारा बन के टिमटिमाने लगी है। भारद्वाज अंकल उसे कह रहे थे, "रे आशा, अब तो तू मेरी तारा बन के ही साथ रह; अब किसी के, टी बी जोशी कह के चिढ़ाने की क्या परवाह !

हमारी प्यारी आँटी, आशा के आसमान का एक टिमटिमाता
तारा हैं अब।

|| स्मृति शेष, विनम्र श्रद्धाजंलि ||
    श्रीमति आशा बी. जोशी




In Loving Memory of My dear
Noble soul of Aunty.
Thanks to dear friend Hirendra Jha for publishing this memoir cum tribute in India's prominent Women mo monthly hindi magazine
Aadhi Aabadi.